एक्टर ने कैरेक्टर को समझ लिया तो डायरेक्टर की छाप एक्टिंग पर हावी नहीं होगी
बीकानेर रंगमंच : अभिषेक आचार्य
प्रदीप जी की बात के बहाने रंगमंच के दो बड़े सवालों पर बात हो गई। ये बात बहुत सारगर्भित रही, क्योंकि कई नई बातें सभी को जानने के लिए मिली। ये जानना कि नाटक तो कलाकार का माध्यम है, निर्देशक का नहीं, सच में उप्लब्धिमूलक था। अब तो सभी निर्देशक को ही रंगमंच का नियंता मानते रहे थे। मंगलजी के इस खुलासे के बाद तो नजर बिल्कुल साफ हो गई।
मगर अब भी वहां बैठे रंगकर्मियों के मन में कई सवाल थे। जिनका निदान होना भी जरुरी था। पर सवाल करे कौन, इस पर सभी एक दूसरे की तरफ देख रहे थे। सबके चेहरे बता रहे थे कि सवाल तो सभी के पास ही है। मंगलजी सबके चेहरों को गौर से पढ़ भी रहे थे। वे भी इस प्रतीक्षा में थे कि कोई सवाल करे तो इस विषय मे बात आगे बढ़े।
क्या हुआ। सबके मुंह पर ताला क्यों लग गया।
हिम्मत करके बात विष्णुकांतजी ने शुरू की।
सर, मगर ये तो किताबी बात है। सुनने में अच्छी लगती है। सच तो इससे उलट है। सब कुछ तो नाटक में निर्देशक के नियंत्रण में रहता है। वही तो इसे चलाता है।
आपकी बात से असहमत नहीं। मगर सच तो सच रहेगा ना, किताबी नहीं। सच को तो कभी बदला ही नहीं जा सकता। अब ये कभी हमारे रंगमंच की है। हमने ही निर्देशक को तानाशाह बना दिया।
हमने कैसे सर। हम दोषी कैसे हुए?
हमने ही उसे सब अधिकार दिये। हम एक कलाकार के नाते न तो अपने पात्र पर पूरी वर्किंग करते हैं और न ही पूरी स्क्रिप्ट पर। यदि कलाकार खुद अपने पात्र पर वर्किंग करे तो वो निर्देशक को उसकी मानसिकता के बारे में बता सकता है। साथ ही अपने अध्ययन से ये भी तर्क सहित साबित कर सकता है कि इस पात्र को मैनें जो समझा है, वह सही है। मगर कलाकार ये करने की जेहमत ही नहीं उठाता। उसे निर्देशक जैसा पात्र के बारे में बताता है, वह वैसा ही मानकर उसे तैयार करने लग जाता है। ये गलत है। कलाकार सोचता है मेरे सिर का तो बोझ हटा। जबकि निर्देशक के पास सभी पात्रों को समझने का काम होता है तो वो किसी एक पात्र पर पूरा ध्यान ही नहीं दे पाता।
अब बारी बोलने की एस डी चौहान साहब की थी। उन्होंने कहा कि आपकी बात सही है सर। निर्देशक की बाध्यता इसमें ज्यादा रोल निभाती है। वही चाहता है कि हर पात्र मेरी कल्पना के अनुसार खड़ा हो ताकि मेरे नियंत्रण में रहे। कलाकार कुछ कहना भी चाहता है तो डपट के चुप करा दिया जाता है।
मैने पहले बताया था कि नाटक कलाकार का माध्यम है। कलाकार निर्देशक के सामने अड़े और जो सोचा है वो करके दिखाए। कोई मूर्ख निर्देशक ही होगा जो अच्छे को नकार अपनी बात थोपने की कोशिश करेगा। यदि कोई ऐसा करता है तो वो फिर अच्छा निर्देशक ही नहीं। अड़ना तो कलाकार को ही पड़ेगा। न केवल अड़ना होगा अपितु जो सोचा है वो करके भी दिखाना होगा। प्रूव करना होगा। यदि गलत है तो स्वीकारने की भी हिम्मत रख सुधारने का जज्बा भी उसमें होना जरूरी है। केवल अड़ना प्रयाप्त नहीं, तर्क सहित प्रमाणित करना भी उसी का जिम्मा है।
प्रदीपजी बोले “यह बात सही है। दरअसल कलाकार अपनी मेहनत से बचने के लिए पात्र का विश्लेषण, उसकी संवाद अदायगी, उसके एक्सप्रेशन आदि की जिम्मेवारी निर्देशक पर डाल देता है। ताकि बाद में कुछ भी खराब हो तो वो कह सके कि मैंने तो वही किया जो आपने कहा। इसी कारण वो अपनी तरफ से निर्देशक को कुछ भी कहने से बचता है। मेरा अनुभव है, मैं जब अनेक बार अपने पात्र को लेकर निर्देशक से सहमत नहीं होता था तो कहता था, करके भी दिखाता था। हनुमान पारीक जी, चौहान साब को बतौर निर्देशक मेरी इस बात का पता है। पात्र को मैं जैसा कंसीव करता था, उसको करके भी बताता था। अधिकतर अवसरों पर उन्होंने मेरी बात को स्वीकार भी किया है।”
बिल्कुल। यही हर कलाकार को करना चाहिए। आपने सही उदाहरण दिया प्रदीप जी। इसके अलावा एक बात और, हम एक नाटक की तैयारी का पूरा जिम्मा निर्देशक पर ही डाल देते हैं। चाहे वो काम अभिनय से जुड़ा हो या व्यवस्था से, सब कुछ उसके हाथ मे आ जाता है। बाकी टीम केवल दर्शक बनी रह जाती है। निर्देशक जब सब काम करता है तो फिर हमें एक कलाकार के रूप में भी उसकी हर बात माननी पड़ती है। क्योंकि मंचन में हमारी कोई भूमिका ही नहीं रहती।
प्रदीपजी अपने तेवर में बोले “आज के कलाकारों ने तो निर्देशक को प्रोड्यूसर बना दिया। चाय भी वही लाये। प्रोपर्टी भी लाये। कॉस्ट्यूम की भी व्यवस्था करे। नाटक की रिहर्सल की भी व्यवस्था करे। सब काम करे। कलाकार केवल अभिनय करते हैं। जाहिर है, तब निर्देशक तानाशाह तो बनेगा ही। उसका कहा मानना ही पड़ेगा। हम यदि रंगकर्मी बन जायें तो निर्देशक भी प्रोड्यूसर नहीं बनेगा और तानाशाह बनने की भी उनकी हिम्मत नहीं होगी।”
बात तो उनकी सही थी। सब इससे सहमत भी थे। मंगलजी भी ये बात सुनकर मुस्कुराने लगे। क्योंकि उन्होंने ही थोड़ी देर पहले रंगकर्मी बनने की बात कही थी। नाटक जब कलाकार का माध्यम है तो निर्देशक को तानाशाह बनने का अवसर ही क्यों मिले। तल्ख बातें थी, मगर रंगकर्म की सच्चाई थी। उससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। मंगलजी तब बोले।
निर्देशक की अवहेलना भी न हो, मगर उसे तानाशाह बनने का अवसर भी न दें। सब अपना अपना काम पूरी जिम्मेवारी के साथ करेंगे तो वो कभी चाहकर भी तानाशाह नहीं बन पायेगा।
यहां एक बात और ध्यान रखें। आप जब नाटक के पोस्टर तैयार करें, भले ही हाथ से लिखकर। उसमें भी केवल निर्देशक का नाम लिखना बंद करें। उसका नाम लिखें, साथ में मुख्य कलाकारों का भी नाम लिखें। उनकी पहचान बने और दर्शक उनके नाटक देखने आयें। कलाकार के कारण जिस दिन दर्शक नाटक देखने के लिए आने लगेंगे, उस दिन के बाद कभी भी नाटक में दर्शकों का अकाल नहीं रहेगा। ये करना ही चाहिए ताकि हम सच्चा रंग धर्म निभा सकें। हमारे यहां दिक्कत यही है कि नाटक कलाकार का माध्यम है मगर दिखाया निर्देशक का जाता है, फिल्म निर्देशक का माध्यम है मगर प्रचार कलाकार का किया जाता है। नाटक की विसंगति को तो हमें ही दूर करना पड़ेगा।
मंगलजी की बात एक नई सोच को दर्शाने वाली थी और सबको तार्किक भी लग रही थी। सब उससे पूरी तरह सहमत दिखाई दिये।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
नाटक है ही कलाकार का माध्यम, इस बात को आज के रंगकर्मी नहीं समझ रहे और सारा भार निर्देशक पर डाल देते हैं। उसी कारण वही नाटक में दिखाई देने लगता है। मैंने अनेक ऐसे नाटक देखें है यहां जिनमें समर्थ एक्टर भी निर्देशक की स्टाइल में डायलॉग डिलीवरी करता दिखता है। जबकि वो ओरिजनल अपनी डायलॉग डिलेवरी करे तो बेहतर हो। निर्देशक की तरह बोलकर वह नाटक को अप्रभावित करता है और पात्र के साथ भी अन्याय कर देता है। बात वही है, हमें सच्चा और अच्छा रंगकर्मी बनना है। आज के दौर में ये पहले जरुरी है।